Tuesday 1 March 2016

जनरल डब्बा और ....

आज कुछ युही मूड किया तो दिल्ली से आगरा जाने वाली ट्रेन के जनरल डिब्बे में चढ़ गया. नजारा कुछ ऐसा था जैसे टीवी में 1947 के दंगो के ऊपर कोई फिल्म चल रही है और ये ट्रेन अभी अभी पाकिस्तान से भर कर आई हो. मैगी और पिज़्ज़ा की तूती बोलने वाले देश में अब भी मूंगफली जिन्दा है देख कर अच्छा लगा. मैंने टिकेट ले रखी थी और शायद यही बात मुझे अमीर होने का एहसास दिला रही थी वरना मोबाइल और शकल दोनों मेरी इनके जैसी ही है. मगर मैं ये नहीं कहता  की इस देश का गरीब बिना टिकेट यात्रा करता है पर इस बदबू से भरे डिब्बे के लिए एक गरीब आदमी भला टिकेट ले भी क्यों. लेगा तो फ़िज़ूल खर्ची ही मानी जाएगी. तीन की सीट पर हमेशा चार ही बैठते है.  अगर थोडा सा और खिसक लिया एडजस्टमेंट कर लिया तो पांच भी बैठ जाते है. कभी-कभी अगर सारे लोग बहुत ही दयावान है तो छठे के लिए भी जगह बन ही जाती है. कुछ लोग डिब्बे के फर्श पर ऐसे ही सो रहे थे और कुछ लोगों ने अख़बार बिछा रखा था. कुल मिला कर अगर आप खड़े रहना चाहते है तो मुश्किल से ही सही पर पैर रखने की जगह जरुर मिल जाएगी. मुझे पता नहीं की खिड़की के पास बैठे भाई साब ने इतने तेज हवा में बीड़ी कैसे जलाई पर निसंदेह ये तारीफ की बात है. अगर कही और होता तो भाई साब मत पियो धुँआ लग रहा है कहके टोक तो देता ही पर आज ऐसा लग रहा था जैसे ये उसका हक है. उसी ही सीट पर बैठी महिला बिना किसी झंझट के बच्चे को बिस्कुट के नाम पर बहला रही थी. मुझे याद नहीं आखिरी बार वो पारले  –जी का बिस्कुट कब खाया था पर इस डिब्बे में दो रूपए के परले-जी ने महँगी-महँगी चोकलेटो की जगह ले ली थी. मुझे सीट मिलेगी इतना तो स्पेशल नहीं था मैं और फर्श पर बैठने की हिम्मत नहीं हो रही थी क्योकि कभी बैठा नहीं आज तक. गरीबी एक मानसिक अवस्था है ऐसा कुछ किसी नेता ने कहा दिया था बाद में बयान से पलट गए थे. पर मैं खड़ा- खड़ा सोच रहा था अगर गरीबी सिर्फ एक मन की अवस्था है तो वो कोने में बैठी बूढी दादी के साड़ी का फटा हुआ पल्लू क्या सिर्फ उसके मन की सोच को दर्शाता है. कुछ मिनट ही वक्त गुजरा था की सीट को लेकर दो लोगो की आपस में कहा सुनी होगई. बात गली गलौच तक आयी . दोनों से ने अपनी खिसियाहट जम के निकाली और ऐसे चुप होगये जैसे बरसों के प्यासों को ठंडा ठंडा पानी मिला हो. मुझे लगा शायद हाथ पायी होजाएगी पर दिन भर की मजदूरी के बाद जो चीज़ बिना थकी रहा गयी थी वो सिर्फ जुबान थी. ये पंखा भी गरीब सा लग रहा था चलते चलते बंद होजाता था. ऊपर ही लेटा पंद्रह सोलह साल का लड़का हर बार किसी अनुभवी मेकेनिक की तरह बार बार झटक कर चालू कर देता था. बुलेट ट्रेन और वाईफाई का वादा करने वाले इस पंखे को भूल गए थे क्योकि वो ऐसी में बैठा करते है. आपको लगेगा मैं बताऊंगा ट्रेन के गंदे बाथरूम के बारे में, गन्दगी के बारे में, सूखे नल के बारे में, ख़राब बल्ब के बारे में, टूटी सीटों के बारे में और बार बार बंद होती खिड़कियो के बारे में पर यकीन मानिये कुछ फर्क नहीं पड़ता इनसब से. अगर वास्तव में कुछ ठीक करना है तो चलिए ऐसा करते है ये जो बच्चा फर्श पर बेसुध सो रहा है जरुर कोई सपना देख रहा होगा. उस सपने में गरीबी न हो, ख़ुशी से मुस्कुराने की आवाज हो और उज्जवल भविष्य हो इतना ही काफी है ट्रेन का जनरल डिब्बा तो ये एडजस्ट करलेगा कोई बड़ी बात नहीं है.

No comments:

Post a Comment